रंगनाथ सिंह: इस किताब की अब तक काफी तारीफ हो चुकी है. इपंले (इन पंक्तियों का लेखक) इस
किताब के लोकार्पण समारोह में शामिल था. लोकार्पण में मुख्य वक्ता थे प्रोफेसर वीर
भारत तलवार, पत्रकार ओम थानवी, पत्रकार करन थापर और पत्रकार रवीश कुमार. मंच
संचालन का जिम्मा भी एक भूतपूर्व पत्रकार अविनाश दास निभा रहे थे. जब एक प्रोफेसर,
वो भी जनेवि का, और पाँच पत्रकार, सभी अग्रणी संस्थानों के, जिस किताब की
भूरि-भूरि तारीफ कर चुके हों उस किताब पर कोई सार्वजनिक राय रखना थोड़ा मुश्किल
है. यह मुश्किल तब और भी बढ़ जाती है जब लिखने वाला (इंपले) खुद न तो अनुभवी पत्रकार
हो, न ही प्रोफेसर. अतः इंपले की इस कलमदराजी को एक पाठक की प्रतिक्रिया मात्र
माना जाए. इंपले को यह भी लगता है कि अन्य जगहों पर इस किताब की अच्छाइयों का
पर्याप्त जिक्र हो चुका होगा इसलिए इंपले का कर्तव्य बनता है कि इस समीक्षा में वह
किताब की अच्छाई के इतर भी दो बातें कह सके.
मुझे उम्मीद है कि यह किताब सिर्फ प्रोफेसरों और पत्रकारों के लिए नहीं लिखी
गई है. अपने शोध प्रबंध को पुस्तक के रूप
में छपवाते समय अरविंद दास की नजर में सामान्य पाठक भी जरूर रहे होंगे. पूरी किताब
नहीं, न सही, कम से कम किताब का सरल एवं सुंदर शीर्षक तो इस बात की पुष्टि करता है
कि अरविंद को पाठकों का भी किंचित ख़्याल था. ये अलग बात है कि किताब ही तरह किताब
का शीर्षक भी थोड़ा भ्रामक है.
किताब के शीर्षक से प्रतीत होता है कि यह क़िताब हिन्दी मीडिया का विश्लेषण
करती है. यह पुस्तक ऐसा कत्तई नहीं करती है. ऐसा भी नहीं है कि यह किताब उन जाली
किताबों की कड़ी में आई नई किताब है जिसे प्रकाशकों की माँग पर फेसबुक स्टेटसों को
इकट्ठा करके लिखा गया है. यह पुस्तक एक शोध प्रबन्ध पर आधारित है. यह शोध किसी
ऐसी-वैसी जगह से नहीं किया गया है. यह शोध प्रतिष्ठित जवाहर लाल नेहरू
विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के अंतर्गत किया गया है. लेखक अरविन्द दास की सारी
समस्याएँ यहीं से शुरू होती हैं. यह पुस्तक भी गंभीरता और अध्ययनशीलता के निकष पर
खरी उतरती है फिर भी किताब समस्याग्रस्त है और इसकी समस्या बहुत ही बुनियादी है.
इंपले की विनम्र राय है कि अरविंद दास इस शोध के प्रारूप को बनाने में ही चूक
गए. यह पुस्तक मूलतः हिन्दी मीडिया पर भूमण्डलीकरण के प्रभाव के अध्ययन का एक
प्रयास है. अरविन्द दास पुस्तक की भूमिका में लिखते हैं कि "...पीएचडी की थीसिस के लिए मैंने 'हिन्दी पत्रकारिता पर भूमण्डलीकरण के प्रभाव' विषय
को चुना था. यह किताब मेरे शोध प्रबन्ध का किंचित संशोधित रूप है."

महिलाओं से जुड़ी खबरों के मामले में एनबीटी 2005 में 1986 से बेहतर कवरेज
करता है लेकिन धर्म के मामले में एनबीटी ने 2005 में ज्यादा हल्का रुख अपनाया.
तीज-त्यौहारों के साथ ही धार्मिक अंधविश्वासों से जुड़ी खबरें भी 2005 में 1986 के
मुकाबले बहुत ज्यादा प्रमुखता पाने लगी थीं. अरविंद दास ने एनबीटी के एक वरिष्ठ
अधिकारों के हवाले से बताया है कि एनबीटी अपने रीडर्स को ध्यान में रखकर ही
सामाग्री का चयन करता है और उस अधिकारी के अनुसार एनबीटी के रीडर मुख्यतः
मध्यवर्गी हैं. इसलिए एनबीटी में किसानो और मजदूरों से जुड़ी खबरें सुर्खियों में
अपवाद स्वरुप ही आती हैं. लेखक कहते हैं कि ऐसी खबरें पहले भी कम आती थी लेकिन
2005 आते-आते इनकी संख्या नगण्य हो गई. किसानों
और मजदूरों की तरह ही दलितों और आदिवासियों से जुड़ी खबरें भी एनबीटी की
सुर्खिंयां अपवादस्वरूप ही बनती हैं. यही हाल साहित्य का भी है. 1986 में एनबीटी
में साहित्य संबंधी खबरों का समुचित हिस्सा था. 2005 आते-आते साहित्य एनबीटी में
हाशिए पर चला जाता है.
अरविंद ने 1986 और 2005 के सामग्री का जो भी विश्लेषण प्रस्तुत किया है उससे
असहमत होने का सवाल नहीं है क्योंगि वो ठोस आंकड़ों पर आधारित हैं.
लेकिन अरविंद पूरी किताब में पाठकों को कहीं भी यह नहीं समझा पाए हैं कि
वर्तमान में मात्र दो महानगरों तक सिमटे अखबार को हिन्दी समाचार पत्रों के प्रतिनिधि
के रूप में कैसे स्वीकार किया जा सकता है. जबके देश में अंग्रेजी के अखबारों से
ज्यादा बिकने वाले तीन प्रमुख अखबारों के सामाग्री विश्लेषण के बिना हिन्दी
पत्रकारिता के बारे में कोई बात करना कैसे संभव है.
अरविंद पाठकों को यह समझाने में भी असफल रहे हैं कि भूमण्डलीकरण का प्रभाव किस
तरीके से पड़ा. उनकी किताब से तो लगता है कि पूरी दुनिया में कोई हवा चली और उसके
प्रभाव में एनबीटी वाले के नैतिक प्रतिमान बदल गए. यहाँ ध्यान देने की जरूरत है कि
यदि टाइम्स समूह के हिन्दी अखबार में 1991 के बाद उल्लेखनीय बदलाव आए तो इसकी समूह
के अंग्रेजी अखबार में कमोवेस ऐसे ही बदलाव आए थे. इसलिए इन बदलावों के हिन्दी जगत
तक सीमित रहने वाली परिघटना मानना भी अनुचित होगा.
अपनी लेखनी को विराम देते हुए यह भी कहना चाहूँगा कि अरविंद इस किताब के
उद्धरणों के अतिशय प्रयोग से परहेज करके इसे ज्यादा पठनीय बना सकते थे.
(समकालीन तीसरी दुनिया, सितंबर 2013)
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