Tuesday 2 February 2021

हिन्दी अखबारों में क्या छप रहा है

समीक्षक: हुसैन ताबिश

"भूमंडलीकरण के बाद अखबारों ने खबरों की नई परिभाषा गढ़ी है जिसका मतलब है - खुशखबरी। अखबार आहत करने वाली खबरों को छापने से बचते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो अखबार यथास्थिति को बरकरार रखने में राज्य और सत्ता के सहयोगी की भूमिका निभा रहे हैं। हिंदी के अखबार खबरों को शासक वर्ग के नजरिए से ही देखते और उसका विश्लेषण करते हैं।
ऐसे में अखबारों में मनोरंजन, फिल्म, क्रिकेट और सेंसेक्स की खबरें प्रमुखता पा रही हैं। वहीं किसानों की बदहाली, दलितों के उत्पीड़न और आदिवासियों की जंगल और ज़मीन से बेदखली सुर्खियां तो दूर अखबार के अंदर के पन्नों पर भी बमुश्किल ही जगह पाते हैं।

खबरें चुनिंदा वर्ग और समूहों तक सिमट गई है। अखबारों के आंतरिक ढांचे में भी इसी वर्ग के पुरुषों का वर्चस्व है।"
उपरोक्त अंश लेखक, शोधार्थी और वरिष्ठ पत्रकार अरविंद दास की पुस्तक " हिंदी में समाचार " के हैं। Antika प्रकाशन ने इसे प्रकाशित किया है और ३९० रुपए की कीमत पर यह किताब Amazon पर उपलब्ध है।
६ अध्यायों में बंटी १९० पेज की यह किताब सीनियर रिसर्च फेलोशिप के तहत शोध और प्राथमिक आंकड़ों के आधार पर लिखी गई है।

किताब में हिंदी के अखबारों पर भूमंडलीकरण, उदारीकृत अर्थव्यवस्था और नव पूंजीवादी संस्कृति के प्रभावों का सम्यक अध्ययन किया गया है। यह राज्य सत्ता, कारपोरेट और समाचार पत्रों के अंतर्संबंधों की भी परतें खोलती है।
पुस्तक इस बात की गहन पड़ताल करती है कि आखिर कैसे अखबारों ने पाठकों की चिंता छोड़कर अपने ग्राहकों की तलाश कर ली है और यही उनके असली माई बाप बन गए हैं। पाठक की भूमिका सिर्फ एक खरीदार की है, और अखबार खबरों की आड़ में उन तक विज्ञापन पहुंचाने का एक जरिया भर है।

वर्ष १९९९ में बेनेट और कोलमैन कंपनी के उपाध्यक्ष भास्कर दास ने कहा था, " प्रिंट मीडिया के मुख्य खरीदार विज्ञापनदाता हैं जो इसका इस्तेमाल अपने खरीदारों तक पहुंचने के लिए करते हैं।"
खबरों के चयन, प्रस्तुतीकरण और उसके विशेष ट्रीटमेंट पर बाज़ार के दबाव और प्रबन्धन तंत्र के हस्तक्षेप का लेखक ने बारीकी से अध्ययन किया है। हिंदी के अखबारों में गांव, गरीब, किसान, मजदूर, दलित, आदिवासी और स्त्रियों को लेकर उपेक्षा भाव की लेखक यहां शिकायत करता है।
किताब लिखती है, हिंदी अखबारों में स्त्री विमर्श में जहां स्त्रियों के शोषण, उत्पीड़न का जिक्र मिलता है, वहीं स्त्रियों के संघर्ष के बारे में, दलित स्त्रियों के दोहरे अभिशाप के बारे में एक किस्म कि चुप्पी दिखती है। जबकि महानगरीय उच्च और मध्यमवर्ग की महिलाओं और उनकी सफलता के किस्सों को अखबार बढ़ा चढ़ाकर पेश करता है।
लेखक इस बात से सहमति जताता है कि भूमंडलीकरण ने महिलाओं की देह, उसके श्रम, उसकी छवि, उसके सौन्दर्य और कमनीयता का अतीत के किसी भी काल के मुकाबले सर्वाधिक दोहन किया है। यहां पितृसत्ता मजबूत हुई है, जिसका साफ असर हिंदी अखबारों में दृष्टिगोचर होता है।

" ३० वर्षीय महिला हवस का शिकार बनी" , "बलात्कार के मामले में इस वर्ष रिकॉर्ड टूटा " बलात्कार का आंकड़ा ६०० के पार" खबरों की ऐसे हेडिंग बलात्कारी के कृत्य को उत्सव की तरह मानती प्रतीत होती है। ऐसी हेडिंग से बलात्कारी को दोषी मानने के बजाए पीड़ित महिला को दोषी मानने की बू आती है। ऐसी भाषा में मर्दवादी रवैया दिखाई देता है जो पुरुषों को ऐसी खबरों पर उद्देलित करने के बजाए, महिलाओं के उपभोग की ओर उन्मुख करती दिखती है।
किताब एक अन्य तथ्य की ओर इशारा करती है कि भारतीय राजनीति में पिछले दशक में हिंदुत्वादी ताकतों के उभार को भी हिंदी अखबारों ने बिना किसी आलोचना के स्वीकार कर लिया है। लगभग हर अखबार में साप्ताहिक रूप से धर्म और कर्मकांड से संबंधित ऐसी खबरें भी छपती है जो धर्म और अध्यात्म से ज़्यादा अंधविश्वास को बढ़ावा देती है।
किताब में हिंदी अखबारों की भाषाई परिवर्तन पर भी गहनता से प्रकाश डाला गया है। लेखक ने लिखा है, चूंकि भूमंडलीकरण की भाषा इंग्लिश है इसलिए इसकी गिरफ्त में आकर अखबार की भाषा भी " हिंग्रेजी " हो गई है। अंतरराष्ट्रीय व्यापार में भारत एक बड़ा बाज़ार है। इस बाज़ार में हिंदी में अंग्रेज़ी के शब्दों को ठूंस ठूंसकर हिंदी को विश्व भाषा बनाने की मुहिम चल रही है और हिंदी के अखबार हिंग्रेजी का प्रयोग कर इस मुहिम को ताकत दे रहे हैं।
यहां लेखक ने जिन मुद्दों पर बात की है, वो कोई नया विषय नहीं है। मीडिया विश्लेषक और आलोचक इन मुद्दों पर बात करते रहे हैं। इन विषयों पर ढेर सारी रिपोर्ट, आर्टिकल और कुछ किताबें भी बाज़ार में उपलब्ध है।
हालांकि बाज़ार में दिलीप मंडल, विनीत कुमार जैसे लेखकों की जी किताबें हैं उनमें मीडिया के कारपोरेट चरित्र की बात ज़्यादा की गई है। इस पुस्तक की उपयोगिता इस बात में है कि इसमें कंटेंट के स्तर पर ज़्यादा बात की गई है। जो तथ्य लिखे गए हैं वो पूरी तरह शोध आधारित है।

पुस्तक में एक कमी खलती है जो काफी सामान्य है और तमाम पुस्तकों और शोध प्रोजेक्ट में इसकी उपेक्षा दिखती है। अखबार के कंटेंट को लेकर संपादकों के अलावा मलिकान और प्रबंधकों का पक्ष नहीं लिखा गया है। इनके बिना अखबार उद्योग या उसके कंटेंट पर कोई भी विमर्श अधूरा ही रह जाता है। अखबार का जो कंटेंट analysis किया गया है अगर इसमें हिंदी के किसी दूसरे अखबार या फिर अंग्रेजी के भी एक अखबार को शामिल कर तुलनात्मक अध्ययन भी प्रस्तुत किया जाता तो विषय को समझने में और आसानी होती। पाठक हिंदी अंग्रेज़ी या फिर हिंदी के ही दो अखबारों का भेद समझ पाता। नव भारत टाइम्स जैसे दिल्ली से छापने वाले अखबारों की ये मज़बूरी भी हो सकती है कि वो अपने पाठकों के लिहाज से अपनी खबरों में गांव, किसान, मजदूर और आदिवासियों की खबरों को प्राथमिकता नहीं देता हो। इस किताब के अध्ययन में राज्यों की राजधानी से निकलने वाले या किसी कस्बाई संस्करण के अखबार को शामिल करना इसके महत्व को और बढ़ा सकता था।
फिर भी ये किताब पत्रकारिता में रुचि रखने वाले पाठकों के साथ - साथ पत्रकारिता के छात्रों, अध्यापकों और अखबार के नीति निर्धारकों को पढ़नी चाहिए। पत्रकारिता के विषयों पर शोध करने वाले उन शोधार्थियों को ये किताब ज़रूर पढ़नी चाहिए जिनका शोध content analysis or observation method पर आधारित हो।
वो इस किताब से बहुत कुछ सीख सकते हैं।

Friday 12 May 2017

हिंदी में समाचार एक संग्रहणीय पुस्तक: विष्णु नागर

प्रिय अरविंदजी

आज समय मिला,आपकी किताब देखने का-हिंदी में समाचार।हर पंक्ति तो नहीं पढ़ी मैंने लेकिन हर अध्याय ग़ौर से देखा-पढ़ा।बहुत अच्छा काम है।भूमण्डलीकरण के दौर में हिंदी मीडिया और ख़ासकर नवभारत टाइम्स में आये परिवर्तनों का बहुत सटीक विश्लेषण है, जिसमें एक दृष्टि भी है और पूरी तैयारी भी।बहुत बधाई इस काम के लिए।यह पुस्तक मेरे लिए संग्रहणीय है।पता नहीं शुक्रवार के दौर में इससे नज़र कैसे चूक गई।काम का अतिरिक्त दबाव ही इसका कारण रहा होगा।

आपका
विष्णु नागर

 (लेखक को लिखे पत्र में, Mar 14, 2017. संपादक एवँ चर्चित कवि)

Wednesday 26 October 2016

हिंदी में एकांगी मीडिया मंथन


अरविंद दास ने जेएनयू से मीडिया पर पीएचडी कर रखी है। मेरे जानते हिन्दी में मीडिया पर जो गिनी चुनी शोधपूर्ण पुस्तकें हैं उनमें एक अरविंद दास की किताब भी है- हिंदी में समाचार। एक मीडिया संस्थान में काम भी करते हैं। बहरहाल, मीडिया और विज्ञापन को लेकर उनकी यह टिप्पणी गौरतलब लगी। मौका मिले तो पढ़िएगा, सोचिएगा- मॉडरेटर (जानकी पुल)  
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राज्यसभा टीवी पर मीडिया मंथन’ नाम से एक रोचक कार्यक्रम आता हैजिसके एंकर हैं हिंदी के वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश. शनिवार (22 Oct) को प्रसारित हुए इस कार्यक्रम का विषय था मीडिया में विज्ञापन या विज्ञापन में मीडिया’. विषय काफी मौजू और समकालीन पत्रकारिता की चिंता के केंद्र में है.

पर कार्यक्रम देख कर काफ़ी निराशा हुई. उम्मीद थी कि मंथन से कुछ निकलेगालेकिन निकला वही ढाक के तीन पात! हिंदी में जो इन दिनों मीडिया विमर्श है वह मंडीदलाल स्ट्रीटदुष्चक्र जैसे जुमलों के इधर-उधर ही घूमता रहता है. इसी तरह उर्मिलेश और जो कार्यक्रम में मौजूद गेस्ट थे इसी विमर्श के इर्द-गिर्द अपने विचारों को परोसते रहेजो कि अंग्रेजी विमर्श में कब का बासी हो चला है. उर्मिलेश भी अंत में इसी निष्कर्ष पर पहुँचे कि ‘ बाज़ार के दुष्चक्र से मीडिया की मुक्ति नहीं’. ‘वह अभिशप्त है’. वगैरहवगैरह.

विमर्श की चिंता के केंद्र में यह था कि विज्ञापन और ख़बर के बीच अब कोई फर्क नहीं बचा है’. ‘पत्रकारिता के सामाजिक सरोकर बिलकुल ख़त्म हो गए हैं.’ पेड न्यूजएडवरटोरियल इन दिनों ख़बरों पर हावी हैआदि.

सवाल बिलकुल जायज है और यह स्थापित तथ्य है कि पेड न्यूज़एडवरटोरियल मीडिया की विश्वसनीयता पर प्रश्न चिह्न बन कर खड़े हैं. और इस पर कई वरिष्ठ पत्रकारशोधार्थी पिछले दशक से लिखते रहे हैंबहस-मुबाहिसा करते रहे हैं.
 
पर कार्यक्रम के दौरान इन सारे सवालोंबहस के बीच कोई आंकड़ा नहीं था (पहले कितना रेशियो विज्ञापन और खबर का था जब आठ-दस पेज का अखबार होता थाऔर आज 20-25 पेज के अखबार में क्या रेशियो है). कोई स्रोत नहीं थे. 

1953 में ही संपादक अंबिका प्रसाद वाजपेयी विज्ञापन को समाचार पत्र की जान कह रहे थे. और हिंदी समाचार पत्रों के विज्ञापन के अभाव में निस्तेज होने का रोना रो रहे थे. 1954 में पहले प्रेस कमीशन ने अखबारों में बड़ी पूंजी के प्रवेश की बात स्वीकारी थी. पर इसका लाभ अंग्रेजी के अखबारों को मिलता रहा. 

उदारीकरणनिजीकरणभूमंडलीकरण के बाद ही भारतीय भाषाई अखबार विज्ञापन उद्योग से जुड़ कर लोगों तक ठीक से पहुंच सके. रौबिन जैफ्री ने अपने लेखों में विस्तार से इसे रेखांकित किया हैसेवंती निनान इसे हिंदी की सार्वजनिक दुनिया का पुनर्विष्कार (reinvention of public sphere) कहती हैं. जाहिर है इस पुनर्विष्कार में विज्ञापनपूंजीवादी उद्योग के उपक्रम तकनीक की प्रमुख भूमिका थी. मैंने भी अपनी किताब हिंदी में समाचार’ में विस्तार से रेखांकित किया है कि किस तरह भूमंडलीकरण के बाद हिंदी के अखबार जो अंग्रेजी के पिछलग्गू थेएक निजी पहचान लेकर सामने आए हैं.

पर अपनी बहस में उर्मिलेश ना तो इस भाषाई मीडिया क्रांति’ की चर्चा करते हैना ही अखबारोंचैनलों के प्रचार-प्रसार से आए लोकतंत्र के इस स्थानीयदेसी रूप को देखते-परखते हैं. 

साथ ही विज्ञापन की इस बहुतायात मात्रा से परेशानी किसे हैपाठकों-दर्शकों को कि मीडिया के विमर्शकारों कोक्या कोई सर्वे है कि असल में पाठक-दर्शक विज्ञापन चाहते हैं या नहीं. यदि हांतो कितना विज्ञापन उपभोक्ता चाहते हैंहम एक कंज्यूमर सोसाइटी (उपभोक्ता समाज) में रह रहे हैंऐसे में विज्ञापन की भूमिका को एक नए सिरे से देखने की जरूरत हैमहज 'शोरकह कर हम इसे खारिज़ नहीं कर सकते. 

जब पच्चीस रुपए का अख़बार पाँच रुपए में मिल रहा होज्यादातार मीडिया हाउस का कारोबार घाटे में होऐसे में विज्ञापन पर निर्भरता स्वाभाविक है. पर हिंदी में मीडिया मंथन इसे एक इच्छाशक्ति से बदलने’, ‘organic approach (?)’ को बढ़ावा देने से आगे किसी ठोस निष्कर्ष पर नहीं पहुँच पा रहा. यह विमर्श मीडिया को पूंजीवाद की महत्वपूर्ण इकाई मानने से ही परहेज करता प्रतीत होता है. इसके विश्लेषण के औजार पत्रकारिता के वही गाँधीवादीशुद्धतावादी कैनन है (गाँधी विज्ञापन के प्रति काफी सशंकित थे. वे अपने पत्रों में विज्ञापन के लिए कोई जगह नहीं छोड़ते थे99 प्रतिशत विज्ञापन को पूरी तरह से बकवास मानते थे ) जो आज़ादी के साथ ही भोथरे हो गए थे.
 (जानकी पुल वेब साइट पर प्रकाशित, 26 अक्टूबर 2016) 

Friday 28 February 2014

खबरों की परिभाषा बदली

स्वप्निल सिंह, शोधार्थी, सामााजिक पद्धति अध्ययन संस्थान, जेएनयू: पिछले दो दशकों में भारतीय पत्रकारिता, खास कर भाषाई पत्रकारिता ने जिस तरह से भारतीय समाज को प्रभावित किया है उस रूप में इसे अध्ययन का विषय नहीं बनाया गया. इस लिहाज से हिंदी पत्रकारिता को लेकर हाल ही में अंतिका प्रकाशन से छपी इस शोध आधारित पुस्तक का स्वागत किया जाना चाहिए.  

इस पुस्तक में लेखक ने भूमंडलीकरण के दौर में हिंदी पत्रकारिता में आए बदलाव और उस पर पड़े प्रभावों का आकलन किया है.  भूमंडलीकरण की विस्तृत व्याख्या के बाद किताब में नवभारत टाइम्स, दिल्ली के अखबार को आधार बना कर सामग्री विश्लेषण की पद्धति से विषय विस्तुओं की पड़ताल की गई है.  भूमंडलीकरण के दौर में पूंजीवाद एक जीवन मूल्य के रूप में स्थापित हो गया है. इसके केंद्र में मुनाफा है. अब खबर एक सूचना ना होकर खुद उत्पाद है, जिसे उपभोक्ता को बेचा जा रहा है. सुर्खियों में अब राजनीति या अंतरराष्ट्रीय समाचार के बदले खेल और कारोबार को ज्यादा स्पेस दिया जा रहा है. स्त्रियों के प्रति हिंसा को भी इस भाषा में प्रस्तुत किया जाता है कि सनसनी पैदा हो. लेखक ने एक जगह नोट किया है- अखबारों के स्त्री विमर्श में जहाँ स्त्रियों के शोषण उत्पीड़न का जिक्र मिलता है वहीं स्त्री के संघर्ष के बारे में एक तरह की चुप्पी है. साथ ही किताब में उदाहरणों के जरिए यह बखूबी दिखाया गया है कि किस तरह स्त्रियों से संबंधित खबरों को पुरुषवादी नजरिए से पाठकों को प्रस्तुत किया जा रहा है. इसकी एक वजह पत्रकारिता की संरचना में स्त्रियों की कम उपस्थिति भी है.

पुस्तक दिखाती है कि किस तरह से भूमंडलीकरण के दौर में हिंदी आम जनों से कटती जा रही है और बाजार के सुर में सुर मिला कर हिंग्रेजी को अपना रही है. एक तरफ बाजार ने जहाँ हिंदी अखबारों को गाँव-कस्बों तक पहुँचा दिया है वहीं खुद भी वह बाजार के चपेट में आई है.

हिंदी पत्रकारिता के पेज, ले आउट और डिजाइन के क्षेत्र जहां भूमंडलीय तकनीक के बदौलत सकारात्मक परिवर्तन हुए हैं, वहीं विषय वस्तु को लेकर ये बात नहीं कही जा सकती है. हिंदी के सबसे ज्यादा बिकने वाले अखबारों में भी बौद्धिक बहस-मुबाहिसा का स्थान सिकुड़ता चला रहा है. पर इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि पिछले दो दशकों में हिंदी पत्रकारिता ने हाशिए के समाज को एक आवाज दी है. जिसे लेखक ने किताब में रेखांकित भी किया है. पर लेखक की चिंता भूमंडलीकरण के दौर में धर्म के बाजारीकरण की भी है. किताब के माध्यम से यह बात सामने आती है कि अखबारों के लिए आस्था का नकदीकरण जैसे एक मजबूरी बन गई है. लेखक ने अखबार को उद्दृत करते हुए लिखा है-हम सब उत्सव प्रेमी हैं. उत्सवधर्मी है हमारा देश. यहाँ हर दिन एक त्योहार है और हर पत्थर एक देवता. पढ़िए इस जीवन, समाज और इसकी आस्था के बारे में हर सोमवार हमारे उत्सव पृष्ठ पर.

पुस्तक में इस अवधारणा की पड़ताल की गई है कि पिछले दो दशकों से किसान, मजदूर, दलित और आदिवासी को लेकर अखबारों का क्या रूख रखा है.  ना तो पहले ये अखबारों के लिए खबर थे ना ही आज. पिछले कुछ सालों में हिंदी अखबारों में दलितों के लेकर जो विमर्श सामने आ रहे हैं जो एक तरह से सर्व व्यापी बाजार के पक्ष में ही है. अपने पत्रकारिता के अनुभव का इस्तेमाल कर लेखक ने किताब में विस्तृत ढंग से इसका विश्लेषण किया गया है. 

हिंदी भले ही सत्ता की भाषा बनके उभरी हो, पर हिंदी पत्रकारिता की पहुँच सत्ता तक उस रूप में नहीं है जिस रूप में अंग्रेजी की है. आने वाले समय में हिंदी अखबार समाज में किस रूप में अपनी पहचान कायम रख पाते हैं यह उसकी विचारधारा और बाजार के संबंध से ही परिभाषित होगा.  पत्रकारिता में रुचि रखने वालों के साथ-साथ भारतीय राज्य और समाज के साथ मीडिया के संबंधों को लेकर जिज्ञासुओं के लिए भी यह एक महत्वपूर्ण पुस्तक है.

(भारतीय समाजशास्त्र समीक्षा (शोध पत्रिका), जनवरी-मार्च 2014 में प्रकाशित, पेज 144-145)

Saturday 8 February 2014

संकुचन का समाचार

  प्रांजल धर,  जनसत्ता, 9 फरवरी 2014:  अरविंद दास की पुस्तक हिंदी में समाचार पत्रकारिता के तमाम विचलनों, दबावों और बदलावों का वर्णन-विश्लेषण करती है। इसमें इस बात का नोटिस लिया गया है कि समाज की जिन संस्थाओं पर भूमंडलीकरण की प्रक्रिया का सर्वाधिक प्रभाव पड़ा है, उनमें से पत्रकारिता भी एक है। जो काम पहले मिशन था, वह बाद में व्यवसाय बना और आज उसकी दशा-दिशा क्या है, यह किसी से छिपा नहीं है। पुस्तक में सामग्री विश्लेषण पर तीन अध्याय हैं जो स्त्री, धर्म, अर्थतंत्र, साहित्य, खेल, किसान, मजदूर और दलित-आदिवासियों के संदर्भ में पिछले कुछ वर्षों और दशकों का लेखा-जोखा प्रस्तुत करते हैं।

भूमंडलीकरण की वर्तमान अवस्था में उभरे पितृसत्ता के नए रूपों की छवि भी हिंदी अखबारों में दिखाई पड़ती है। हमारी पत्रकारिता में महिलाओं की दशा क्या है, इसका अंदाजा इस पुस्तक से मिलता है। भारत में स्त्री-संघर्ष का इतिहास देश की राजनीतिक, सामाजिक, मजदूर और दलित आंदोलन से संबद्ध रहा और उससे समय-समय पर प्राणवायु हासिल करता रहा है। ऐसे में इस बात की जांच गहराई से किए जाने की दरकार है कि भूमंडलीकरण के बाद अखबारों में किस स्त्री की छवि को परोसा जा रहा है? और क्या स्त्रियों को उतनी आजादी हासिल है, जितनी पुरुषों को, इस सवाल से पत्रकारिता को जूझने की जरूरत है।
पहले जहां अखबार स्त्रियों के संदर्भ में स्वतंत्रता पर, कुटीर उद्योग या फिर महिलाओं की असल समस्याओं पर लिखते थे, वहीं आज सिखाया जाता है किदुल्हन वही जो प्रतियोगिता जीत जाए अपनी पुस्तकहिंदी में समाचारमें अरविंद ऐसी तमाम बुनियादी बातों की तह तक जाते हैं और पिछले काफी समय से चल रहे स्त्री-हिंसा, यौन शोषण या दलित-शोषण का सार्थक जायजा लेते हैं।
पत्रकारिता में प्रबंधकों और संपादकों के आपसी संबंधों के साथ-साथ मालिकों को लेकर भी यह पुस्तक थोड़ा-बहुत विमर्श करती है। समाचार माध्यमों में स्वामित्व की बात करें तो कुछ गंभीर चिंताएं सामने आती हैं। भारतीय समाचार उद्योग के विस्तार और विकास के बावजूद खिलाड़ियों की संख्या सिर्फ घटी, बल्कि एक ओर मीडिया परिदृश्य निरंतर संकीर्ण होता जा रहा है और दूसरी ओर पब्लिक स्फीयर का क्षेत्रफल भी घट रहा है। इसका असर वैचारिक बहुलता और पाठकों तक पहुंचने वाली खबरों की विविधता पर सीधा पड़ रहा है।
यह छिपी बात नहीं है कि बड़ी पूंजी के जरिए अनेक ऐसे लोग अखबारों और टीवी चैनलों समेत विभिन्न समाचार माध्यमों के मालिक और नियंता बने बैठे हैं, जिन्हें पत्रकारिता के पेशे और उसकी नैतिकता से ज्यादा चिंता इस बात की है कि अपने आप को सुरक्षित कैसे किया जाए। आज ऐसी आशंका जताई जा रही है कि बड़ी पूंजियों के दबाव में छोटे और मंझोले खिलाड़ियों के लिए बाजार में टिकना मुश्किल होता जाएगा। इसमें किसी आश्चर्य की बात इसलिए नहीं है, क्योंकि पूंजी का चरित्र ही ऐसा होता है, जहां बड़ी पूंजी छोटी पूंजी को निगल जाती है। समाचार माध्यमों के स्वामित्व के संदर्भ में आज भारतीय ही नहीं, पश्चिमी समाचारपत्र जगत में भी ऐसी बहसें बेहद आम हो चली हैं कि क्या अखबारों के स्वामित्व में संकेंद्रण बढ़ रहा है? यह संकेंद्रण विचारों का उपवन कहे जाने वाले पब्लिक स्फीयर और पत्रकारीय प्रतिबद्धता के लिहाज से अच्छा या सराहनीय बिल्कुल नहीं है।
समाचारों के संदर्भ मेंएक्टिव रिपोर्टरनामक अपनी चर्चित किताब में लेविस जेम्स ने जिस तरह के कटिबद्ध संवाददाताओं को अखबारों की आत्मा माना है, उस तरह के कटिबद्ध संवाददाताओं की कमी भी अखरने वाली बात है। असल में यह पेज-थ्री पत्रकारिता का दुष्प्रभाव ही है। वर्तमान समय में उन्हीं हिंदी अखबारों की प्रसार संख्या ज्यादा है, जो अंग्रेजी में निकलने वाले प्रतिष्ठित अखबारों के सहायक अखबारों के रूप में निकल रहे हैं। इसे हिंदी अखबारों के दुर्भाग्य और अवांछित विकास के तौर पर लिया जाता है। कहा जाता है कि हिंदी अखबार, अंग्रेजी अखबारों के सांचे में ढल कर उनका प्रतिरूप, या प्रकारांतर से पिछलग्गू, बनते जा रहे हैं। ऐसे अनेक कोणों पर अरविंद विचार करते हैं, पर यह विचार-विश्लेषण और भी ज्यादा गहरा हो सकता था।
हालांकि यह पुस्तक अंग्रेजी मीडिया के साथ-साथ प्रसंगवश बीबीसी जैसे मीडिया संस्थान का भी विश्लेषण करती चलती है, पर सवाल है कि क्या हिंदी की जनता अंग्रेजी कीपब्लिकवाले जीवन मूल्यों और समाचार-मूल्यों को बिना किसी हिचक के स्वीकार कर पाने की स्थिति में चुकी है? यहां आकर पत्रकारीय सरोकारों के सिकुड़ते चले जाने का सवालभारतऔरइंडियाके बीच पसरे विशाल अंतरों से जुड़ जाता है। स्वामित्व के इस संकेंद्रण का ही दुष्प्रभाव है कि इस समयआजजैसा महत्त्वपूर्ण हिंदी अखबार भी अपने अस्तित्व के संकट से जूझ रहा है।
हिंदी भाषा के संदर्भ में उत्तर प्रदेश को भले भारत का हृदयस्थल यानी हार्टलैंड कहा जाता रहा हो, लेकिन यहां भीएनआइपी’, ‘अमृत प्रभात’, ‘आज’, ‘स्वतंत्र भारत’, ‘स्वतंत्र चेतना’, ‘जनवार्ताऔरजनमोर्चाजैसे कई अखबार या तो बंद हो गए या फिर हाशिये पर चले गए हैं। कुछ तो किसी तरह चल रहे हैं, लेकिन उनकी आयु ज्यादा लंबी नहीं है। और फिर बात केवल बिहार या उत्तर प्रदेश जैसे एक-दो राज्यों की ही नहीं है। राजस्थान की बात करें तो वहां भीनवज्योतिका ग्राफ नीचे जा रहा है और यही हाल मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ मेंनवभारतऔरदेशबंधुका है।
आज के मीडिया विश्लेषण स्पष्ट करते हैं कि राष्ट्रीय स्तर पर अभी किसी एक या दो बड़े मीडिया समूहों का स्पष्ट प्रभुत्व भले दिखता हो, लेकिन विभिन्न भाषाई क्षेत्रों या राज्यों में एकाधिकारवादी प्रवृत्तियां साफ देखी जा सकती हैं। भारत में कम से कम छह ऐसे राज्य हैं, जहां एक बड़ी मीडिया कंपनी का बढ़ता दबदबा स्पष्ट रूप से नजर आता है। इन सब मुद्दों पर और भी गंभीर रोशनी डाली जा सकती थी। परिशिष्ट में यह विज्ञापनों पर विमर्श के साथ-साथ प्रभाष जोशी का साक्षात्कार और अनेक वरिष्ठ लोगों से बातचीत भी प्रस्तुत करती है। इसे लिखने के क्रम में लेखक ने खासा क्षेत्रीय कार्य किया है।
हिंदी में समाचार: अरविंद दास; अंतिका प्रकाशन, सी-56/ यूजीएफ-2, शालीमार गार्डन, एक्सटेंशन-2, गाजियाबाद, उप्र; 390 रुपए।

Saturday 11 January 2014

ख़बरों की ख़बर

हिंदुस्तान ( 12.01.2014), धर्मेंद्र सुशांत
http://www.livehindustan.com/news/tayaarinews/tayaarinews/article1-story-67-67-392181.html

युवा पत्रकार-शोधार्थी अरविंद दास की यह पुस्तक वैश्वीकरण के दौर में उभरे नव पूंजीतंत्र की छाया में विकसित और परिवर्तित हुई हिंदी पत्रकारिता का गहन विवेचन करती है। जिस परिघटना को आज सूचना-संचार क्रांति कहा जाता है, उसके दौर में हिंदी समाचार जगत ने न केवल नई पहचान कायम की, बल्कि अपने व्यावसायिक हितों को भी नए सिरे से बढ़ने-व्यापक होने की दिशा में दूर तक पहुंचाया। इस सफलता के बरअक्स हिंदी मीडिया को दूसरी तरफ ‘पेड न्यूज’ जैसे लांछन का सामना भी करना पड़ा। मिश्रित अर्थव्यवस्था के दौर में जहां सियासी और समाजी महत्व की खबरों के बदले मनोरंजन के तत्व हावी होते चले गए, वहीं प्रमुख मीडिया के सरोकार भी स्पष्ट तौर पर बदल गए। दास की यह किताब मीडिया के बहुआयामी बदलाव को सोदाहरण सामने रखती है। पिछले दो दशक का मीडिया जगत इस विवेचना के दायरे में शामिल है।



हिंदी में समाचार, अरविंद दास, अंतिका प्रकाशन, गाजियाबाद-5, मूल्य: 390 रु.