समीक्षक: हुसैन ताबिश
"भूमंडलीकरण के बाद अखबारों ने खबरों की नई परिभाषा गढ़ी है जिसका मतलब है - खुशखबरी। अखबार आहत करने वाली खबरों को छापने से बचते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो अखबार यथास्थिति को बरकरार रखने में राज्य और सत्ता के सहयोगी की भूमिका निभा रहे हैं। हिंदी के अखबार खबरों को शासक वर्ग के नजरिए से ही देखते और उसका विश्लेषण करते हैं।
ऐसे में अखबारों में मनोरंजन, फिल्म, क्रिकेट और सेंसेक्स की खबरें प्रमुखता पा रही हैं। वहीं किसानों की बदहाली, दलितों के उत्पीड़न और आदिवासियों की जंगल और ज़मीन से बेदखली सुर्खियां तो दूर अखबार के अंदर के पन्नों पर भी बमुश्किल ही जगह पाते हैं।
खबरें चुनिंदा वर्ग और समूहों तक सिमट गई है। अखबारों के आंतरिक ढांचे में भी इसी वर्ग के पुरुषों का वर्चस्व है।"
उपरोक्त अंश लेखक, शोधार्थी और वरिष्ठ पत्रकार अरविंद दास की पुस्तक " हिंदी में समाचार " के हैं। Antika प्रकाशन ने इसे प्रकाशित किया है और ३९० रुपए की कीमत पर यह किताब Amazon पर उपलब्ध है।
६ अध्यायों में बंटी १९० पेज की यह किताब सीनियर रिसर्च फेलोशिप के तहत शोध और प्राथमिक आंकड़ों के आधार पर लिखी गई है।
किताब में हिंदी के अखबारों पर भूमंडलीकरण, उदारीकृत अर्थव्यवस्था और नव पूंजीवादी संस्कृति के प्रभावों का सम्यक अध्ययन किया गया है। यह राज्य सत्ता, कारपोरेट और समाचार पत्रों के अंतर्संबंधों की भी परतें खोलती है।
पुस्तक इस बात की गहन पड़ताल करती है कि आखिर कैसे अखबारों ने पाठकों की चिंता छोड़कर अपने ग्राहकों की तलाश कर ली है और यही उनके असली माई बाप बन गए हैं। पाठक की भूमिका सिर्फ एक खरीदार की है, और अखबार खबरों की आड़ में उन तक विज्ञापन पहुंचाने का एक जरिया भर है।
वर्ष १९९९ में बेनेट और कोलमैन कंपनी के उपाध्यक्ष भास्कर दास ने कहा था, " प्रिंट मीडिया के मुख्य खरीदार विज्ञापनदाता हैं जो इसका इस्तेमाल अपने खरीदारों तक पहुंचने के लिए करते हैं।"
खबरों के चयन, प्रस्तुतीकरण और उसके विशेष ट्रीटमेंट पर बाज़ार के दबाव और प्रबन्धन तंत्र के हस्तक्षेप का लेखक ने बारीकी से अध्ययन किया है। हिंदी के अखबारों में गांव, गरीब, किसान, मजदूर, दलित, आदिवासी और स्त्रियों को लेकर उपेक्षा भाव की लेखक यहां शिकायत करता है।
किताब लिखती है, हिंदी अखबारों में स्त्री विमर्श में जहां स्त्रियों के शोषण, उत्पीड़न का जिक्र मिलता है, वहीं स्त्रियों के संघर्ष के बारे में, दलित स्त्रियों के दोहरे अभिशाप के बारे में एक किस्म कि चुप्पी दिखती है। जबकि महानगरीय उच्च और मध्यमवर्ग की महिलाओं और उनकी सफलता के किस्सों को अखबार बढ़ा चढ़ाकर पेश करता है।
लेखक इस बात से सहमति जताता है कि भूमंडलीकरण ने महिलाओं की देह, उसके श्रम, उसकी छवि, उसके सौन्दर्य और कमनीयता का अतीत के किसी भी काल के मुकाबले सर्वाधिक दोहन किया है। यहां पितृसत्ता मजबूत हुई है, जिसका साफ असर हिंदी अखबारों में दृष्टिगोचर होता है।
" ३० वर्षीय महिला हवस का शिकार बनी" , "बलात्कार के मामले में इस वर्ष रिकॉर्ड टूटा " बलात्कार का आंकड़ा ६०० के पार" खबरों की ऐसे हेडिंग बलात्कारी के कृत्य को उत्सव की तरह मानती प्रतीत होती है। ऐसी हेडिंग से बलात्कारी को दोषी मानने के बजाए पीड़ित महिला को दोषी मानने की बू आती है। ऐसी भाषा में मर्दवादी रवैया दिखाई देता है जो पुरुषों को ऐसी खबरों पर उद्देलित करने के बजाए, महिलाओं के उपभोग की ओर उन्मुख करती दिखती है।
किताब एक अन्य तथ्य की ओर इशारा करती है कि भारतीय राजनीति में पिछले दशक में हिंदुत्वादी ताकतों के उभार को भी हिंदी अखबारों ने बिना किसी आलोचना के स्वीकार कर लिया है। लगभग हर अखबार में साप्ताहिक रूप से धर्म और कर्मकांड से संबंधित ऐसी खबरें भी छपती है जो धर्म और अध्यात्म से ज़्यादा अंधविश्वास को बढ़ावा देती है।
किताब में हिंदी अखबारों की भाषाई परिवर्तन पर भी गहनता से प्रकाश डाला गया है। लेखक ने लिखा है, चूंकि भूमंडलीकरण की भाषा इंग्लिश है इसलिए इसकी गिरफ्त में आकर अखबार की भाषा भी " हिंग्रेजी " हो गई है। अंतरराष्ट्रीय व्यापार में भारत एक बड़ा बाज़ार है। इस बाज़ार में हिंदी में अंग्रेज़ी के शब्दों को ठूंस ठूंसकर हिंदी को विश्व भाषा बनाने की मुहिम चल रही है और हिंदी के अखबार हिंग्रेजी का प्रयोग कर इस मुहिम को ताकत दे रहे हैं।
यहां लेखक ने जिन मुद्दों पर बात की है, वो कोई नया विषय नहीं है। मीडिया विश्लेषक और आलोचक इन मुद्दों पर बात करते रहे हैं। इन विषयों पर ढेर सारी रिपोर्ट, आर्टिकल और कुछ किताबें भी बाज़ार में उपलब्ध है।
हालांकि बाज़ार में दिलीप मंडल, विनीत कुमार जैसे लेखकों की जी किताबें हैं उनमें मीडिया के कारपोरेट चरित्र की बात ज़्यादा की गई है। इस पुस्तक की उपयोगिता इस बात में है कि इसमें कंटेंट के स्तर पर ज़्यादा बात की गई है। जो तथ्य लिखे गए हैं वो पूरी तरह शोध आधारित है।
पुस्तक में एक कमी खलती है जो काफी सामान्य है और तमाम पुस्तकों और शोध प्रोजेक्ट में इसकी उपेक्षा दिखती है। अखबार के कंटेंट को लेकर संपादकों के अलावा मलिकान और प्रबंधकों का पक्ष नहीं लिखा गया है। इनके बिना अखबार उद्योग या उसके कंटेंट पर कोई भी विमर्श अधूरा ही रह जाता है। अखबार का जो कंटेंट analysis किया गया है अगर इसमें हिंदी के किसी दूसरे अखबार या फिर अंग्रेजी के भी एक अखबार को शामिल कर तुलनात्मक अध्ययन भी प्रस्तुत किया जाता तो विषय को समझने में और आसानी होती। पाठक हिंदी अंग्रेज़ी या फिर हिंदी के ही दो अखबारों का भेद समझ पाता। नव भारत टाइम्स जैसे दिल्ली से छापने वाले अखबारों की ये मज़बूरी भी हो सकती है कि वो अपने पाठकों के लिहाज से अपनी खबरों में गांव, किसान, मजदूर और आदिवासियों की खबरों को प्राथमिकता नहीं देता हो। इस किताब के अध्ययन में राज्यों की राजधानी से निकलने वाले या किसी कस्बाई संस्करण के अखबार को शामिल करना इसके महत्व को और बढ़ा सकता था।
फिर भी ये किताब पत्रकारिता में रुचि रखने वाले पाठकों के साथ - साथ पत्रकारिता के छात्रों, अध्यापकों और अखबार के नीति निर्धारकों को पढ़नी चाहिए। पत्रकारिता के विषयों पर शोध करने वाले उन शोधार्थियों को ये किताब ज़रूर पढ़नी चाहिए जिनका शोध content analysis or observation method पर आधारित हो।
वो इस किताब से बहुत कुछ सीख सकते हैं।